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Angrezi Madhyam Ka Bhramjaal (Buy 5 copies)
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Angrezi Madhyam Ka Bhramjaal (Buy 5 copies)- Bulk Buy
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ISBN 13 | 978-1942426158 |
Book Language | Hindi |
Binding | Paperback |
Edition | 2nd |
Release Year | 2019 |
Publishers | Garuda Prakashan |
Category | Social Impact Bulk Buy Bundles |
Frequently Bought Together
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Product Details
“अंग्रेज़ी माध्यम का भ्रमजाल” भारत के जन-मानस पर थोपी हुई उस औपनिवेशिक मानसिकता – जिसमें अंग्रेज़ी सर्वोपरि भाषा का दर्जा हासिल किये हुए है – की ओर ध्यान आकर्षित करती है| अपने शोध, आंकड़ों और "केस स्टडीज़" के आधार पर वे ये सिद्ध करते हैं कि अंग्रेज़ी की प्रभुता भारत के आर्थिक प्रगति में सबसे बड़ी बाधा है | पर क्या ये सोच सही है? लेखक संक्रान्त सानु सधे हुए तर्कों के आधार पर इस अवधारणा को ध्वस्त करते हैं| अपने शोध, आंकड़ों और ‘केस स्टडीज़’ के आधार पर वे ये सिद्ध करते हैं की अंग्रेज़ी की प्रभुता भारत के आर्थिक प्रगति में सबसे बड़ी बाधा है| कैसे? पाठक जब इस पुस्तक को पढ़ेंगे तो पायेंगे की कैसे इतिहास में अंग्रेज़ों ने अपनी भाषा हम पर थोपी और हमें आर्थिक और सांस्कृतिक दरिद्रता के दलदल में धकेल दिया? शायद उनकी सफलता का सबसे बड़ा कारण था की उन्होंने इसे आर्थिक (नौकरी आदि) पक्ष से जोड़ दिया| और दूसरी तरफ हमारी अपनी शिक्षा-पद्धति को नेस्तनाबूद कर दिया| हम अपनी ही धरोहर से घृणा करने लगे| भारत के उच्च शिक्षा में, न्यायपालिका में, उच्च नौकरशाही में और मीडिया में अंग्रेज़ी की प्रभुता बढ़ी और साथ ही एक “अँगरेज़ मह्न्त्शाही” का निर्माण हुआ| इससे भारत के गैर-अंग्रेज़ी भाषियों में एक हीन भावना घर कर गयी, जो आज तक बनी हुई है| और, जैसा की लेखक ने इस पुस्तक में कई उदहारण दिए हैं, ये इस हद तक पहुंची की गैर-अंग्रेज़ी पृष्ठभूमि से आये युवाओं ने आत्महत्या का रास्ता अपनाया, जब उच्च शिक्षा के स्तर पर वो खुद को “अंग्रेज़ी मीडियम” में नहीं ढाल पाए| अपनी बात रखने के लिए सानु ने हरियाणा के एक गाँव में शोध किया; साथ ही वैश्विक स्तर पर कई देशों में वहाँ की मातृभाषाओं की क्या स्थिति रही, इस पर विस्तार से प्रकाश डाला है| ये पुस्तक आपको यूरोपीय और एशियाई देशों ही नहीं, बल्कि अफ्रीकी और दक्षिण अमेरिकी देशों की ओर भी ध्यान खींचते हैं – ये सारे देश भी औपनिवेशिक मानसिकता से जूझ रहे हैं|
लेकिन, पाठक ये जानेंगे की कैसे वो एक हारी हुई लड़ाई लड़ रहे हैं – सिर्फ इसलिए की उन्होंने अपनी मातृभाषा की जगह औपनिवेशिक भाषा को चुना| दक्षिण अमेरिकी देश तो लगभग पूरी तरह अपनी मातृभाषा भूल चुके हैं| “अंग्रेज़ी माध्यम का भ्रमजाल” आपको ये सोचने पर मजबूर करती है की क्या भारत में भी भारतीय भाषाओँ का यही हश्र होगा? सानु अपनी बात यहीं नहीं छोड़ते| वे बताते हैं की इस विषय पर किन नीतिगत बदलावों की आवश्यकता है हमारे देश में| उदहारण के लिए: उच्च शिक्षा के क्षेत्र में किसी भी भारतीय भाषा में ज्ञान-अर्जन की सारी बाधाएं दूर करना; संस्कृत में एक ऐसा तकनीकी शब्दकोष तैयार करना जो अन्य भारतीय भाषाओँ (हिंदी सहित) सर्व-स्वीकार्य हो; सामाजिक विज्ञान के विषयों को भारतीय भाषाओँ को पढ़ाना आदि| इतना ही नहीं, पाठकों को इस पुस्तक में इसराइल, जापान, ईरान और अन्य कई देशों की ‘केस स्टडीज़’ मिलेंगी जिससे उन्हें ये जानने में आसानी होगी की कोई भी देश अपनी मातृभाषा को आगे रखते हुए कैसे न सिर्फ सांस्कृतिक तौर पर, बल्कि आर्थिक तौर पर भी विश्व के अग्रणी देशों में गिने जाते हैं| दरअसल, ये पुस्तक इस उम्मीद से लिखी गयी थी की इस निहायत ही जरूरी विषय पर न सिर्फ एक चर्चा शुरू हो, बल्कि जरूरी नीतिगत बदलाव भी हो| सानु कहते हैं की फिलहाल गेंद “समाज” के ही पाले में है, क्योंकि जिन्हें ये नीतियाँ बदलनीं हैं, वो शायद अभी इस स्थिति की गंभीरता को नहीं समझ रहे; उल्टे, अंग्रेज़ी को प्राथमिक स्तर से लागू करने के प्रयास हो रहे हैं|